Tuesday, September 2, 2025

प्रवेश से वापसी तक / 'देहली_2 : ड्योढ़ी

जहाँ भीतर और बाहर मिलते हैं
एक पारम्परिक संरचना के भाषिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थों की पड़ताल

ड्योढ़ी का वास्तु में ढल जाना 
'ड्योढ़ी' केवल एक शब्द नहीं, अपितु एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक एवं सांस्कृतिक सूझबूझ का नमूना है। आधुनिक विचारधारा में ईंट-गारे-चूने के इस सुदृढ़़ ढाँचे को सामन्ती संकल्पना से प्रेरित निर्माण भी कहा जा सकता है। यह किसी भी नगर-बस्ती के मुख्यमार्ग और आवासीय परिसर के बीच एक निजी, सुरक्षित प्रवेश स्थान होता था। हवेलियों और महलों जैसी पारम्परिक संरचनाओं में, ड्योढ़ी एक साधारण प्रवेश द्वार से कहीं बढ़कर थी; यह एक प्रवेश-कक्ष, आगन्तुकों के लिए एक प्रतीक्षालय और 'ड्योढ़ीदार' या 'प्रतिहार' (द्वारपाल) के लिए एक चौकी के रूप में काम करती थी, जो घर की सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करता था । भाषा और वास्तुशिल्प स्पष्ट रूप से स्थापित करते हैं कि 'ड्योढ़ी' के विकास में भाषाशास्त्रीय बदलावों के साथ साथ सुरक्षा और सामाजिक स्थिति के दृष्टिकोण से वास्तु में भी परिवर्तन हुआ। 'ड्योढ़ी' प्रवेश द्वार से बढ़कर सुरक्षा और नियन्त्रण का स्थान बन गई।


'देहली' से देह तक 

हिन्दी शब्द 'ड्योढ़ी' संस्कृत के प्राचीन शब्द 'देहली' का सीधा, ध्वन्यात्मक रूप से विकसित वंशज है 'ड्योढ़ी' की भाषाई यात्रा का आरम्भ प्राचीन भारतीय-आर्य भाषा संस्कृत से होता है, जहाँ 'देहली' शब्द की जड़ें गहराई से स्थापित हैं । संस्कृत कोशों के अनुसार, 'देहली' शब्द की व्युत्पत्ति मूल धातु 'दिह्' से मानी जाती है, जिसका अर्थ है 'लेपन करना', 'पोतना' या 'बढ़ाना' इसी धातु से 'देह' (अर्थात् शरीर) भी बना है, जो एक आकार या रूप की अवधारणा को दर्शाता है। इस व्युत्पत्ति से यह सङ्केत मिलता है कि 'देहली' का मूल अर्थ किसी लिपे-पुते या मिट्टी से बने ऊँचे चबूतरे से था जो किसी आवास के प्रवेश द्वार पर बनाया जाता था । शास्त्रीय संस्कृत में इसके प्रमुख अर्थ "द्वार की चौखट (विशेषकर निचली लकड़ी)", "देहरी" या "घर के सामने का उठा हुआ चबूतरा या बरामदा" हैं


जटिल बदलाव: 'देहली' , डेहरी, 'ड्योढ़ी'

'देहली' से 'डेहरी' और फिर 'ड्योढ़ी' जैसे शब्दों के विकास में '' का कठोर '' में बदलने को मूर्धन्यीकरण कहा जाता है। मूर्धन्य ध्वनियों का विकास प्राचीन मानव जत्थों के आप्रवासन से एक बहुभाषी समाज के निर्माण और सांस्कृतिक मिश्रण की एक शक्तिशाली भाषिक प्रतिध्वनि है। अक्सर '' और '' जैसी मिलती-जुलती ध्वनियाँ एक-दूसरे की जगह ले लेती हैं। इसी सहज प्रवृत्ति के कारण 'देहली' का '', '' में बदल गया और देहरी रूप सामने आया। इसके विपरीत, 'ड्योढ़ी'  अधिक परिवर्तित रूप है, जो कई ध्वन्यात्मक पड़ावों से गुज़रा। इस प्रक्रिया में पहले 'देहली' का '' एक कठोर ध्वनि '' में बदला, जिससे 'देहुड़ी' जैसा मध्यवर्ती रूप बना बाद में, शब्द के बीच की कमज़ोर '' ध्वनि लुप्त हो गई और फिर '' तथा '' स्वरों के आपस में मिलने से 'यो' की नई ध्वनि का जन्म हुआ, जिससे 'ड्योढ़ी' शब्द बना। कुल मिला कर देहली देहुडि देउड़ / देवढीड्योढ़ी यह क्रमिक विकास रहा होगा। राजस्थानी में डोडी जैसा रूपभेद भी है।


घर और बाहर का सन्धिस्थल

देह, देहली और दीवाल तीनों एक ही स्रोत से विकसित हुए हैं। या शृङ्खला दिघ्, दिह्, दिज़, देगा, दाएज़ा में परिधि, कोट, किला और सुरक्षित स्थान का भाव विकसित होता चला गया। इससे दिलचस्प रूपक भी बनता है। दिह्, देह में बाहरी संरचना का भाव है। देह बाहरी ढाँचा है जिसके अन्दर नाज़ुक अङ्ग सुरक्षित रहते हैं। इसी तरह घर के चारों ओर की दीवार और देहली के भीतर समूचा परिवार, कुटुम्बी, सम्पत्ति, गिरस्ती यहाँ तक कि रिश्ते-नाते तक सुरक्षित रहते हैं। अवेस्ता में इसी कड़ी का दिज़ शब्द है और जिसका अर्थ किला होता है। पुराने दौर में यह मिट्टी के लौंदों को एक के ऊपर एक पाथ कर, लीप पोत कर खड़ी की गई दीवार होती थी जिसका मक़सद था सुरक्षा। बाद में इसी मूल से दीवाल, दीवार जैसे शब्द भी बने। फिरदौस और पैराडाइज़ (स्वर्गोद्यान) शब्दों का दूसरा पद यही दाएज़ा है जिसमें परिधि का भाव है।


देहरी जो घर की देह है

口ईरानी में जो दिज, दाएजा मिट्टी की दीवाल या परिधि है, उसका ही संस्कृत रूप दिह् है जिसमें भी उभार का भाव आया। मूलतः यह घर में प्रवेश के स्थान वाले उभार जिस पर चौखट टिकती है, से सम्बद्ध हुआ। पुराने दौर में वहाँ पर कुछ देर रुका जाता था। मुँह हाथ धोया जाता था, चप्पल उतारी जाती थी सुस्ताया जाता था तब घर में प्रवेश किया जाता था। इस तरह देहली और देह वाले रूपक को भी समझा जा सकता है। देहरी घर के भीतर प्रवेश से पहले का ठहराव है, जहाँ बाहर का संसार पीछे छूटता है और भीतर की निजी दुनिया खुलती है। यह वही मध्यस्थ बिंदु है जो देह भी अपने स्तर पर निभाती है—बाहरी जगत और आत्मानुभूति के बीच का पहला संपर्क। इस प्रकार ‘देहरी’ घर की ‘देह’ प्रतीत होती है- दोनों ही सुरक्षा, सीमा और अस्तित्व की गारंटी


चलते चलते-  'ढेलज' की बात

एक आम ग़लतफ़हमी यह भी है कि उर्दू का दहलीज और मराठी का ढेलज जैसे शब्द भी 'देहली' से व्युत्पन्न हैं ध्वनि व अर्थ, दोनों ही कारक यहाँ प्रबल हैं, पर ऐसा नहीं है । ये दोनों अलग-अलग मूल के हैं, पर अर्थगत साम्य की वजह से इन्हें देहली-ड्योढ़ी वाली शृङ्खला से सम्बन्धित मानना भी असहज नहीं है। यद्यपि 'दहलीज' और 'ढेलज' के स्रोत भिन्न हैं, पर 'देहली' के साथ इनका अर्थगत व ध्वनिसाम्य इतना गहन है कि व्यवहार में ये एक-दूसरे के पर्याय बन जाते हैं इनके मूल और विकास की विस्तृत चर्चा हम इस शृंखला की आगामी 'देहली_3 : दहलीज' वाली कड़ी में करेंगे।

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अगली कड़ी - 'देहली_3 : दहलीज'

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Thursday, August 28, 2025

क्षत्रप और छत्रपति: दो अलग सत्ताएँ

शब्दकौतुक
एक शब्द, कई रूप

अक्सर हम एक जैसे लगने वाले शब्दों को एक ही परिवार का मान लेते हैं, खासकर जब उनका उच्चारण मिलता-जुलता हो। 'क्षत्रप' और 'छत्रपति' ऐसे ही दो शब्द हैं, जिन्हें कई बार एक-दूसरे से जोड़कर देखा जाता है। इसकी एक बड़ी वजह है 'क्ष' का '' की तरह उच्चारण होना, जिससे 'क्षत्रप' को 'छत्रप' सुन लिया जाता है। लेकिन भाषा और इतिहास की गहराई में उतरने पर पता चलता है कि ये दोनों शब्द दो अलग-अलग दुनिया से आते हैं। इनकी कहानियाँ हमें प्राचीन ईरान से लेकर मध्यकालीन भारत तक की यात्रा कराती हैं और दिखाती हैं कि शब्दों का सफ़र कितना रोमाञ्चक हो सकता है।

क्षत्रप: ईरान से भारत तक एक शाही सफ़र'

क्षत्रप' शब्द की जड़ें हमें प्राचीन ईरान तक ले जाती हैं। यह शब्द प्राचीन ईरानी (अवेस्ता) के 'क्षथ्रपावन' (xšaθrapāvan) से निकला है, जिसका अर्थ है 'राज्य का रक्षक'। यह दो हिस्सों से बना है: 'क्षथ्र' (xšaθra) यानी 'राज्य' या 'शक्ति' और 'पावन' (pāvan) यानी 'रक्षक'। जब यह शब्द प्राचीन यूनान (ग्रीस) पहुँचा, तो इसका उच्चारण 'सत्रपेस' (satrapes) हो गया। सिकंदर महान ने जब ईरान को जीता, तो उसने इस प्रशासनिक व्यवस्था को अपना लिया और भारत के विजित प्रदेशों में अपने गवर्नर नियुक्त किए, जिन्हें 'क्षत्रप' कहा गया। बाद में, मध्य एशिया से आए शक शासकों ने इस उपाधि को पश्चिमी और मध्य भारत में स्थापित किया, जहाँ बड़े शासक 'महाक्षत्रप' और छोटे शासक 'क्षत्रप' कहलाए।

शहर से लेकर ख़ातून तक'

क्षत्रप' का पहला हिस्सा, 'क्षथ्र', अपने आप में एक दिलचस्प कहानी कहता है। यही 'क्षथ्र' शब्द समय के साथ बदलकर आधुनिक फ़ारसी का 'शहर' बन गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 'राज्य' या 'शक्ति' ('क्षथ्र') का केंद्र 'नगर' ही होता था। 'क्षथ्र' संस्कृत के 'क्षेत्र' का ही समरूप है। 'त्र' के स्थान पर 'थ्र' के अन्तर को पहचाना जा सकता है। संस्कृत का 'मित्र' अवेस्ता में 'मिथ्र' हो जाता है, दोनों का अर्थ सूर्य है। प्राचीन ईरानी और फिर फ़ारसी में 'क्षथ्र' का रूप बदला। 'क्ष' व्यंजन से '' ध्वनि का लोप हुआ और शेष रहा ''। फिर 'थ्र' से '' ध्वनि का लोप हुआ और '' ध्वनि का वियोजन होने से '' और '' ध्वनियाँ छिटक गईं। इस तरह 'क्षथ्र' का फ़ारसी रूप हुआ 'शह्र', जो उर्दू में भी 'शह्र' और हिन्दी में 'शहर' बनकर प्रचलित है।

नामवाची क्षेत्र जैसे कुरुक्षेत्र

स्थान नाम के साथ 'क्षेत्र' शब्द का इस्तेमाल हमारे यहाँ होता रहा है। 'खेत' इसका ही रूपान्तर है, जैसे सुरईखेत, छातीखेत, साकिनखेत, रानीखेत। ये सभी स्थान उत्तराखण्ड में आते हैं। हरियाणा के कुरुक्षेत्र में यह अपने मूल स्वरूप में नज़र आ रहा है। शहर की खासियत होती है उसका फैलाव। प्राचीन पारसी अगर अपने देश को 'आर्याणाम-क्षथ्र' कहते थे तो उसमें आर्यों के विशाल क्षेत्र में फैलाव का भाव ही था, जो सिन्धु से लेकर वोल्गा तक विस्तृत था। वैदिक शब्द आर्यावर्त को इसके समानान्तर देखा जा सकता है।

शहरियत, शहराती, शहरबान

रूपान्तर की प्रक्रिया से आज हिन्दी-उर्दू में इस्तेमाल होने वाले शब्द जैसे 'शहरपनाह' (शहर की रक्षा करने वाली दीवार), 'शहरियत' (नागरिकता) और 'शहराती' (शहर में रहने वाला) उसी प्राचीन 'क्षथ्र' से जुड़े हैं। यहाँ तक कि 'शहरबान' (नगरपाल) शब्द भी सीधे 'क्षथ्रपावन' का ही वंशज है, जिसमें 'बान' प्रत्यय संस्कृत के 'वान' (जैसे- धनवान) का ही रूप है। इस शब्द का एक और हैरान करने वाला रूप है 'ख़ातून'। माना जाता है कि शक शासकों द्वारा बोली जाने वाली सोग्दी भाषा में 'क्षत्रप' का रूप 'ख्वातवा' (भूमि का स्वामी) बना, और इसी का स्त्रीलिंग रूप 'ख़ातून' (रानी या कुलीन महिला) तुर्क और मंगोल साम्राज्यों तक पहुँच गया।

'क्षत्र': क्षत्रिय, खत्री और क्षेत्रपाल

जिस समय ईरान में 'क्षथ्र' शब्द प्रचलित था, ठीक उसी समय भारत में उसका सजातीय भाई 'क्षत्र' (katra) मौजूद था, जिसका अर्थ भी 'शासन', 'शक्ति' और 'प्रभुत्व' ही था। इसी 'क्षत्र' से 'क्षत्रिय' शब्द बना, जो शासक और योद्धा वर्ण को दर्शाता है। भाषा के स्वाभाविक विकास में संस्कृत का 'क्षत्रिय' शब्द पंजाबी में 'खत्री' और नेपाली में 'छेत्री' बन गया। शक्ति और शासन का संबंध हमेशा भूमि से होता है, इसलिए 'क्षत्र' से ही वैचारिक रूप से जुड़ा एक और शब्द है 'क्षेत्र', जिसका मतलब है 'इलाका' या 'खेत'। इसी आधार पर 'क्षेत्रपाल' (क्षेत्र का रक्षक) जैसी उपाधि भी बनी, जो अर्थ में 'क्षत्रप' के बहुत करीब है।

छत्रपति: पूरी भारतीय पहचान

अब आते हैं 'छत्रपति' पर, जिसका 'क्षत्रप' से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। 'छत्रपति' शब्द संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है: 'छत्र' और 'पति'। यहाँ 'छत्र' का अर्थ है छाता या छतरी, जो प्राचीन भारत में राजसी संप्रभुता और सम्मान का प्रतीक था। राजा के सिर पर लगने वाला राजकीय छत्र उसकी शक्ति और प्रजा के प्रति उसके संरक्षण का चिह्न होता था। 'पति' का अर्थ है 'स्वामी' या 'प्रमुख'। इस प्रकार, 'छत्रपति' का सीधा-सादा अर्थ है 'राजकीय छत्र का स्वामी' या वह सम्राट जिसके ऊपर राज-छत्र धारण किया जाता है। यह एक विशुद्ध भारतीय उपाधि है, जिसे मराठा साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी महाराज ने लोकप्रिय बनाया।

'छत्र' का अपना अलग परिवार

'छत्र' शब्द जिस भाषाई परिवार से आता है, वह 'क्षत्र' से पूरी तरह अलग है। 'छत्र' से बने शब्द संरक्षण और आवरण का भाव देते हैं। उदाहरण के लिए, 'छतरी' (बारिश से बचाने वाला छाता), 'छत' (घर का ऊपरी आवरण), 'छाजन' (छप्पर), 'छाया' (परछाईं) और यहाँ तक कि फ़ारसी का शब्द 'साया' भी इसी मूल से जुड़ा माना जाता है। ये सभी शब्द किसी न किसी रूप में ढकने या आश्रय देने का भाव रखते हैं, जो राजकीय छत्र के 'संरक्षण' के प्रतीक से मेल खाता है।

भ्रम की वजह और उसका निवारण

तो फिर यह भ्रम पैदा क्यों होता है? इसकी एकमात्र वजह उच्चारण की समानता है। आम बोलचाल में जटिल संयुक्त अक्षर 'क्ष' को अक्सर '' बोल दिया जाता है। इस वजह से 'क्षत्रिय' को 'छत्रिय' और 'क्षत्रप' को 'छत्रप' कहना आम हो गया है। जब कोई 'क्षत्रप' को 'छत्रप' कहता है, तो ध्वनि की समानता उसे 'छत्रपति' की याद दिलाती है और वह अनजाने में दो अलग-अलग मूल और अर्थ वाले शब्दों को एक मान लेता है।

शब्दों की दुनिया को सही पहचानें

अंत में, यह स्पष्ट है कि 'क्षत्रप' एक विदेशी मूल का शब्द है जो एक प्रशासनिक पद (गवर्नर) को दर्शाता है और इसका सफ़र ईरान से शुरू होकर यूनान और शक शासकों के ज़रिए भारत पहुँचा। वहीं, 'छत्रपति' एक विशुद्ध भारतीय उपाधि है जो 'राजकीय छत्र' की अवधारणा से जुड़ी है और संप्रभु सम्राट का प्रतीक है। एक 'राज्य का रक्षक' है तो दूसरा 'छत्र का स्वामी'। शब्दों की इस यात्रा को समझना केवल भाषाई ज्ञान नहीं, बल्कि संस्कृतियों के इतिहास को समझना भी है। हर शब्द के पीछे एक कहानी छिपी होती है, और सही जानकारी हमें इस भाषाई और ऐतिहासिक भ्रम से बचा सकती है।

 

 

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'देहली_1/ डेहरी : टीले का उभार या देहरी की छाया!

नाम में छिपा एक बसाहट का वास्तुशास्त्र   शब्दकौतुक

प्रवेशद्वार की जाँच-पड़ताल


भाषा का संसार बड़ा ही रोचक है, जहाँ ध्वनि की समानता अक्सर अर्थ के कई आयाम खोल देती है। 'डेहरी' एक ऐसा ही शब्द है, जो हमारे मानस में दरवाज़े की चौखट, यानी 'दहलीज' के रूप में स्थापित है। लेकिन जब यही शब्द बिहार में सोन नदी के किनारे बसे एक शहर 'डेहरी ऑन सोन' के नाम के रूप में सामने आता है, तो यह हमें इसकी व्युत्पत्ति पर गहराई से सोचने के लिए विवश कर देता है। क्या इस शहर का नाम केवल एक 'प्रवेश द्वार' होने की ओर सङ्केत करता है, या इसके पीछे कोई भू-संरचनात्मक कारण हैं? डेहरी के पीछे संस्कृत का देहली है या उठाव, टीले का आशय प्रकट करने वाले डीह, डीहा जैसे शब्द हैं?

किस तर्क में अधिक बल?

अब प्रश्न यह उठता है कि इन दोनों तर्कों में से कौन अधिक प्रामाणिक है। 'देहली' (प्रवेश द्वार) वाली सङ्कल्पना पहली बार में ही आकर्षक लगती है, किंतु गहराई से विचार करने पर यह थोड़ी अमूर्त और लाक्षणिक नज़र आती है। वहीं, 'डीह' (ऊँचा टीला) वाली सङ्कल्पना सीधे तौर पर बोली, भूगोल और इतिहास से मेल खाती लगती है। सोन नदी के कछारी इलाके में, जहाँ भूमि समतल और बाढ़ की चपेट में आने वाली हो, एक ऊँचा और सुरक्षित पठारी क्षेत्र उस बस्ती की सबसे बड़ी पहचान बन सकता है।

डीह का मज़बूत आधार

यह भी ध्यान देने योग्य है कि स्थान-नामों की व्युत्पत्ति अक्सर सामान्य संज्ञाओं से भिन्न मार्ग अपनाती है। वे स्थानीय भूगोल, वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं या किसी ऐतिहासिक घटना से गहरे जुड़े होते हैं। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की बोलियों, विशेषकर भोजपुरी में, 'डीह' शब्द का प्रयोग अत्यन्त सहज और व्यापक है। अतः यह अधिक सम्भाव्य है कि एक स्थानीय और जीवन्त भौगोलिक शब्द ही इस स्थान के नाम का आधार बना हो, न कि एक सामान्य साहित्यिक शब्द 'देहली'

कोशगत आशय और प्रवेश स्थान

'डेहरी' की व्युत्पत्ति का सबसे प्रबल और प्रलेखित आधार संस्कृत का 'देहली' शब्द है, जिसका अर्थ है दहलीज या प्रवेश द्वार के निकट का स्थान। हिन्दी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कोशों में से एक, हिन्दी शब्दसागर, स्पष्ट रूप से 'डेहरी' को 'संस्कृत देहली' से व्युत्पन्न मानता है। इसी तरह, ऑक्सफ़ोर्ड हिन्दी-अङ्ग्रेज़ी शब्दकोश भी इसके 'threshold' (दहलीज) वाले अर्थ को प्रमुखता देता है। यह अकादमिक साक्ष्य इस बात को पुष्ट करता है कि 'डेहरी' (देहली, देहरी) नाम की कोई महत्त्वपूर्ण बस्ती यहाँ थी जिसका रणनीतिक या व्यापारिक महत्त्व रहा होगा जहाँ वह किसी बड़े क्षेत्र, घाटी या नदी-मार्ग के लिए सीमापुरी या सरहदीकोट का कार्य करता था।

'डीह' से 'डेहरी': बसावट और भूगोल

दूसरा तर्क हमें शब्दकोश से बाहर उस क्षेत्र के भूगोल और लोक-जीवन की ओर ले जाता है। यह तर्क 'डेहरी' शब्द का सम्बन्ध 'डीह' से जोड़ता है। 'डीह', और इसके अन्य रूप जैसे 'ढूह', डीहा उस ऊँचे क्षेत्र को कहते हैं जो किसी पुराने, वीरान हो चुके गाँव का अवशेष हो। पूर्वी भारत के हलके ढालू मैदानी क्षेत्र सदा से बाढ़ग्रस्त रहे हैं। यहाँ जीवन रक्षा का एक ही उपाय थाऊँचाई पर बसना। अतः, नई बस्तियाँ अक्सर पुराने गाँवों के ऊँचे टीलों या 'डीह' पर ही बसाई जाती थीं। इस परिप्रेक्ष्य में, 'डीह' से 'डिहरी' (डीह पर स्थित) और फिर 'डेहरी' बनना एक अत्यन्त स्वाभाविक भाषाई विकास प्रतीत होता है।

दहलीज और डीह का समन्वय

घर और नगर की मूलभूत समानता यह है कि दोनों का निर्माण मनुष्यों की सुविधा और सुरक्षा का ध्यान रखकर किया जाता है। नमी और बाहरी अव्यवस्था से बचाने के लिए एक ऊँची दहलीज (देहली) बनाई जाती है, जिस तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ होती हैं, ठीक उसी प्रकार एक नदी-तटीय शहर को बाढ़ के प्रकोप से बचाने के लिए नदी की सतह से ऊँचे भूभाग या टीले (डीह/उभार) पर बसाया जाता था। इस सादृश्य में, नदी का घाट और उसकी सीढ़ियाँ चढ़कर जिस ऊँचे प्रवेश-द्वार (द्वारमण्डप) से शहर में प्रवेश किया जाता था, वह पूरा उठा हुआ संरचनात्मक परिसर ही उस शहर की सामूहिक 'देहरी' कहलाया। 

◾उदाहरण के लिए, जिस तरह हरिद्वार (हरद्वार) को उसकी संरचनागत विशेषता की वजह से उत्तराखण्ड, बद्रीनाथ या केदारनाथ जाने का द्वार या देहरी कहा जाता है। इस प्रकार, किसी भवन या नगर प्रवेश का भौगोलिक 'उभार' (डीह) ही उसकी वास्तुशिल्पीय 'दहलीज' (देहली) का भौतिक स्वरूप है। डीह में भी दिह् (लेपन से लेकर उभार तक) की छाया दिखाई देती है।

एक शब्द, दो यात्राएँ, एक मंज़िल

'डेहरी' शब्द की मूल व्युत्पत्ति कोशों के अनुसार संस्कृत 'देहली' से ही है। किंतु, 'डेहरी ऑन सोन' जैसे स्थान के नाम के रूप में इसका प्रयोग केवल लाक्षणिक 'प्रवेश द्वार' के लिए नहीं हुआ, बल्कि यह उस शहर की भौतिक संरचना को सीधे-सीधे परिभाषित करता है। यह नाम सोन नदी के किनारे उस ऊँचे टीले या उभार पर बसी मानव-बस्ती की कहानी कहता है, जो बतौर देहरी वहाँ की 'दहलीज' थी। इस प्रकार 'डेहरी' शब्द में भाषा, भूगोल और मानव-निर्मित संरचनाएँ एक-दूसरे में विलीन हो जाती हैं।

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Saturday, August 23, 2025

चिटणीस का कच्चा-चिट्ठा

शब्द कौतुक / मुहावरे का खुलासा

'कच्चा चिट्ठा खोलना' एक ऐसा ही सशक्त मुहावरा है, जिसका अर्थ है किसी व्यक्ति या मामले से जुड़े सभी गुप्त भेदों, अप्रिय सत्यों और अनकही बातों को बिना किसी लाग-लपेट के उजागर कर देना। यह किसी वृत्तान्त को उसके मौलिक, खुरदुरे तथ्यों को जस का तस प्रस्तुत कर देना है। दरअसल यही नग्न सत्य होता है। यह महज़ किसी रहस्य को खोलना नहीं, बल्कि उस रहस्य से जुड़े हर एक तथ्य, हर एक आँकड़े को पूरी प्रामाणिकता के साथ सामने रख देना है। सफ़र के इस पड़ाव में हम 'कच्चा', 'चिट्ठा' और चिटणीसशब्दों से मिलेंगे। उनकी प्राकृत-संस्कृत-फ़ारसी जड़ों को तलाशेंगे और समझने का प्रयत्न करेंगे कि साधारण से लगने वाले चिट, चिट्ठी, चिट्ठा जैसे आमजन में प्रचलित शब्द सत्ता, सूचना और प्रभाव के प्रतीक किस तरह बन गए।

'कच्चे' की मज़बूत जड़ें

'कच्चा' जैसे तद्भव शब्द की जड़ें संस्कृत – प्राकृत/अपभ्रंश के रास्ते हिन्दी तक पहुँची हैं। हिन्दी शब्द 'कच्चा' अपने अर्थ में कई भाव समेटे हुए है- जो पका न हो, अस्थायी, असत्यापित, अपरिपक्व या प्रारम्भिक। इसकी कोई सर्वस्वीकृत व्युत्पत्ति अभी तक नहीं है क्योंकि तथ्य अपर्याप्त है।  एक प्रचलित विचार 'कच्चा' शब्द को संस्कृत के 'कषण' से जोड़ता है, जिसका अर्थ है घिसना, कसौटी पर कसना या परखना। इस व्याख्या के अनुसार, जो चीज़ अभी कसी या परखी नहीं गई, वह 'कच्ची' है। कच्चाशब्द की परम्परागत व्युत्पत्ति संस्कृत कषण (घिसना, परखना) से जोड़ दी जाती है, पर ध्वन्यात्मक दृष्टि से यह अविश्वसनीय है।

प्राकृत और अपभ्रंश परम्परा

कष् से कच् का रूपान्तरण अप्राकृतिक है, और इससे कसौटी तो निकल सकती है, कच्चा नहीं। अर्थात्, 'कच्चा' का जो भाव है—'न परखा हुआ'- उसकी व्याख्या करने के लिए 'कषण' शब्द का सहारा लिया जाता है, न कि उसे इसका मूल स्रोत माना जाता है। वास्तव में कच्चा का मूल स्रोत प्राकृत और अपभ्रंश परम्परा में ढूँढा जाना चाहिए। प्राकृत में कच्चि/कच्चु के रूप मिलते हैं जिनका अर्थ है कुछ, थोड़ा, अपूर्ण’, और अपभ्रंश में यही कच्छु बनकर हिन्दी के कुछ शब्द का जनक हुआ।

क्वचित किञ्चित कुछ

यह भी सम्भव है कि इन प्राकृत रूपों के अर्थ-विकास में संस्कृत के क्वचित्, किञ्चित् और कतिपय  जैसे शब्दों की सोहबत का असर हो। इन सभी में अल्पता, आंशिकता और अपूर्णताका भाव निहित है। क्वचित् = कभी-कभी, किञ्चित् = थोड़ा-सा, और कतिपय = गिने-चुने। इस प्रकार की अर्थ-सोहबत ने कच्चि/कच्छु और आगे चलकर कच्चा शब्द में भी अपूर्णताका वही मूल भाव पुष्ट किया होगा। ध्वन्यात्मक निकटता और अर्थगत समानता, दोनों ने मिलकर कच्चाको आज के अर्थ तक पहुँचाया हो। इस दृष्टि से कच्चाप्राकृत-अपभ्रंश की मिट्टी में पला शब्द है, जिसका आशय है अधूरा, अधपका, असंसाधित कषण  से किया गया सम्बन्ध केवल व्याख्यात्मक समानता है, वास्तविक व्युत्पत्ति नहीं। अतः सुरक्षित मत यही है कि कच्चा की जड़ें संस्कृत की अपेक्षा लोक-प्रसूत प्राकृत-अपभ्रंश परम्परा में कहीं अधिक गहरी हैं।

चित्र से 'चिह्न', ठप्पा और 'लेखा-बही' तक

'चिट्ठा' की कहानी और भी दिलचस्प है। इस का मूल संस्कृत के 'चित्र' शब्द से माना जाता है 'चित्र' यानी कोई आकृति, रेखांकन, रूपांकन या दृश्याङ्कन आदि। जब यह शब्द प्राकृत और अपभ्रंश से गुज़रा, तो इसका रूप 'चित्ती,चित्ता' हो गया, जिसने दो दिशाओं में विकसित होना आरम्भ किया। एक ओर, यह 'लिपि-चिह्न' बना, यानी लिखने का प्रतीक। इस विचार से 'चिट' शब्द का जन्म हुआ, जिसका अर्थ है किसी भाव को व्यक्त करने वाला काग़ज़ का कोई पुरजा जैसे एक नोट । इसी 'चिट' से 'चिट्ठी' (पत्र) और 'चिट्ठा' (चिटों का लेखा-जोखा) जैसे शब्द विकसित हुए।   लेकिन प्रशासनिक यह 'राजचिह्न' बन गया। यह कोई शब्द, चिह्न या ठप्पा भर नहीं बल्कि सर्वोच्च अधिकार का प्रतीक है। इसे आगे विस्तार से देखेंगे।

'चिट्ठे' को मिली सत्ता : आना 'चिटणीस का

सत्रहवीं शताब्दी में छत्रपति शिवाजी महाराज ने नए साम्राज्य की नींव रखते हुए दक्कनी सल्तनतों की खूबियों को अपने प्रशासन में ढाला। इसी क्रम में मंत्रिपरिषद का गठन किया, जिसमे एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मन्त्रिपद था 'शुरूनवीस' । इनका ही मुख्य कार्यकारी जो राजकीय पत्राचार (शाही फ़रमान, पत्र, संधियाँ) को देखना, उनकी भाषा-शैली की जाँच करना और परगनों के हिसाब-किताब का निरीक्षण करना था, 'चिटणीस' कहलाया चिटणीस का एक प्रमुख कार्य शासकीय प्रलेखों, आदेश-निर्देश आदि पर मुहर लगाना, उनकी प्रति सुरक्षित रखना भी था। 'चिटणीस' मराठी-फ़ारसी मेल से बना संकर शब्द है। चिट का अर्थ नोट, पर्ची या लिखित दस्तावेज़ है। नीस फ़ारसी के'-नवीस' का मराठीकृत रूप है। तो 'चिट-नवीस' या 'चिटणीस' का शाब्दिक अर्थ हुआ 'चिट्ठों का लेखक' या 'राजकीय दस्तावेज़ों का लिपिक'

मुहावरे में सेंध

अब हम सभी सूत्रों को जोड़कर 'कच्चा चिट्ठा' मुहावरे को आसानी से समझ सकते हैं। जैसा कि हमने देखा, कच्चा का  अर्थ प्रारंभिक, असंशोधित, अपरिष्कृत है। मुहावरे का दूसरा पद चिट्ठा अक्सर गोपनीय दस्तावेज़ था, जिसमें राज्य के सभी लेन-देन, समझौते और रहस्य दर्ज होते थे। इन दोनों को मिलाकर 'कच्चा चिट्ठा'  का अर्थ बनता है - किसी आधिकारिक रिकॉर्ड का प्रारंभिक मसौदा, उसका असंशोधित संस्करण। इसलिए, 'कच्चा चिट्ठा खोलना' का अर्थ हुआ उस आधिकारिक द्वारपाल अर्थात चिटणीस की जानकारी के बिना किसी मौलिक, अनफ़िल्टर्ड डेटा को दुनिया के सामने प्रकट कर देना। यह एक ऐसी कार्रवाई है जो व्यवस्था के भीतर की सच्चाई को उजागर करती है।

और चलते चलते....
पुराने दौर से आज तक मीडिया क्या करता आ रहा है
? प्रशासन के बाबुओं की मार्फ़त दफ़्तरों, अफ़सरों, फाइलों, योजनाओं, सचिवों, मन्त्रियों के कच्चे-चिट्ठे हासिल करते हैं और फिर अपनी अपनी आवश्यकता, लाग-डाट, यारी-दोस्ती के हिसाब से सत्ता को साधने या बिगाड़ने के खेल चल रहे होते हैं। न्यूज़रूम में हर दिन अख़बार को आकार देने के लिए जो प्रमुख बैठक होती है उसमें यही एक शब्द आम है- आज क्या खेल करना है। चिटणीस और चिट्ठे की चर्चा से यह पता चलता है कि किसी शक्ति को चुनौती देने का सबसे कारगर तरीक़ा उसकी सूचनाओं को उसके मूल और 'कच्चे' रूप में उजागर कर देना है।

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Friday, August 15, 2025

जन्म से आज़ादी तक

#शब्दकौतुक
 
जन गण मंगल की बात

▪स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर, जब हम राष्ट्र, जन और गण की बात करते हैं, तो याद रखना चाहिए कि संस्कृत-हिन्दी-फ़ारसी-अंग्रेज़ी के कई शब्द- जैसे जनतन्त्र, आज़ादी, जननी, जन्म, प्रजा, फ़र्जन्द या kin, kind, king, gene, genesis, gentle, और nation आदि एक ही भाषाई स्रोत से निकले हैं। ये सभी शब्द भारोपीय भाषा की जड़ों से उत्पन्न हुए हैं, जो संस्कृत, लैटिन, ग्रीक, फ़ारसी और भाषाओं की पूर्वज मानी जाती है। इस भाषाई सम्बन्धों के माध्यम से हम यह समझ सकते हैं कि मानव सभ्यता में "जन" और "गण" की अवधारणाएँ कितनी पुरानी और सार्वभौमिक हैं।
कुटुम्ब से राष्ट्र तक
▪किन और किनशिप जैसे शब्द भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं। "Kin" का अर्थ है स्वजन या परिवार। इसी तरह किनशिप का आशय हुआ रिश्तेदारी या नातेदारी। जो स्वजनों के बीच होती है। वे लोग जिनसे हमारा रक्त सम्बन्ध होता है। किंग, नैशन जैसे शब्द सत्ता और शासन की ओर संकेत करते हैं, लेकिन इनका मूल भी जन और जनता यानी भारोपीय मूल का जीन / gene है। जिसमें जन्म, आज़ादी, स्वतन्त्रता जैसे भाव छुपे हैं। इसी कड़ी में किंग भी है। राजा वही होता है जो अपने "गण" का प्रतिनिधि हो, और राष्ट्र वही होता है जो अपने "जन" की आकांक्षाओं का प्रतिबिंब हो। तो जनगण और जनतन्त्र में सत्ता का स्रोत जनता है, न कि कोई एक व्यक्ति या वर्ग।
▪समझ सकते हैं कि शुरुआती मानव समूह जो कौटुम्बिक धरातल पर था। जो रक्त सम्बन्धियों का ही संघ था। वे चलते फिरते राष्ट्र थे। बाद में वे स्थायी हुए और रिश्तेदारी-नातेदारी से उठकर उनके बीच जोड़ने वाला धागा भाषा, संस्कृति, क्षेत्र, नदी, पहाड़ और विशिष्ट सामाजिकता हुई। यही राष्ट्रीयता उनके बीच की नातेदारी थी। नैशन शब्द का रिश्ता भी जन से है। कैसे ?
जन और नैशन का डीएनए
▪पुरानी लैटिन में नास्सी (gnasci) शब्द था जिसमें जन्म लेने का भाव था। यह उसी भारोपीय मूल gene से जुड़ा था जिसमें जन्म देने का भाव था। लैटिन का नेटिवस भी इसी शृङ्खला से निकला जिससे नेटिव शब्द बना जिसमें जन्म लेने, जन्मा होने, देशी, मूल निवासी आदि आशय हैं। इसका अगला विकास नैटियो है जिसमे जन्म, उत्पत्ति, जाति आदि है। इसी लिए लैटिन के नास्सी से निकले नैशन, नैशनल, नैशनलिज़्म आदि शब्दों में किसी जातीय संघ या समूह में पैदा होने का भाव प्रकट होता है। मूलतः नास्सी में जो gn है दरअसल यही वह गुणसूत्र हैं जो जन और नैशन में समान हैं। जाति शब्द इसी शृङ्खला का है किन्तु दुर्भाग्य से सदियों पहले भारतीय समाज में यह अपने लक्षणों से भटक गया।
जन जन का गणित
▪संस्कृत में "जन" का अर्थ है उत्पन्न होना, और "गण" का अर्थ है समूह या समुदाय। जब हम "गणराज्य" कहते हैं, तो हम उस व्यवस्था की बात करते हैं जिसमें सत्ता का केंद्र जनसमूह होता है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, जहां अनेक भाषाएँ, धर्म, और संस्कृतियाँ सह-अस्तित्व में हैं, वहाँ "गण" की अवधारणा केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक भी है। गण का आशय एक से अधिक होना है। गिनती या गणना का आधार एक से अधिक इकाइयों का साथ साथ होना है। ऐसी अनेक इकाइयाँ मिल कर गण का निर्माण करती हैं। गणित कुल मिलाकर संख्याओं की क्रियाएँ ही तो हैं।
आज़ादी और स्वतन्त्रता
▪इसी पड़ाव पर आज़ादी की बात कर लेते हैं। इसका अर्थ है स्वतन्त्र या बन्धनमुक्त। यह बना है पहलवी के आज़ात से। इसमें जो ज़ात है उस पर ग़ौर करें। यह वही है जो अजातशत्रु के जात में है। पहलवी का "ज़ात" और संस्कृत का "जात" भाषाई रूप से एक ही जड़ से निकले हैं, और दोनों में जन्म तथा स्वभाव का भाव निहित है। जन्म लेना दरअसल क्या है? जननी के गर्भ से बाहर आना और क्या ? गर्भनाल से बन्धे होने की विवशता से मुक्त होना। इस पृ्थ्वी पर खुली हवा में साँस लेने से पूर्व जन्मदात्री की कुक्षि में ही एक निश्चित अवधि तक ही जिसका ठिकाना होता है।
▪इस मायामय गेह से, जो कितनी ही सुरक्षित क्यों न रही हो, बाहर आना ही जीवमात्र की नियति है। और इससे बाहर आने के लिए वह छटपटाता भी है। तो कुल मिलाकर आज़ादी का मूल ज़ात है जिसमें जन्म लेने की बात है। जन्म लेने में कोख से मुक्ति की बात है। यही आज़ादी है। माँ के पेट से बाहर आने का वक्त भी वही तय करता है। आने वाले जीवन में भी अपनी आज़ादी को सुरक्षित रखने के लिए उसे निरन्तर सतर्क, सचेष्ट रहना होता है।
जन्म लेना और उसे सार्थक करना
▪आज़ादी का महत्व जानने के लिए ख़ुद को किन्हीं नियमों, अनुशासनों के बन्धन में बान्धना भी आवश्यक होता है। स्वतन्त्रता के बिना सृजन सम्भव नहीं। "Gene" और "genesis" जैसे शब्द उत्पत्ति और विकास की ओर संकेत करते हैं। स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, भाषाई और बौद्धिक विकास की भी प्रक्रिया है। भारत की स्वतंत्रता केवल ब्रिटिश शासन से मुक्ति नहीं थी, बल्कि यह अपनी सांस्कृतिक पहचान, भाषाओं, और विविधता को पुनः स्थापित करने का अवसर भी था। हम इस ओर कितना आगे बढ़े, यह जन और तन्त्र के तौर पर हम सबके और शासन के सामूहिक आकलन का विषय है।
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Thursday, August 7, 2025

टैरिफ़ : अरब सौदागरों की देन

वह शब्द जो अपना ही अर्थ भूल गया...

टैरिफ़ का दोहरा चरित्र

आधुनिक आर्थिक जगत में 'टैरिफ़' एक ऐसा शब्द है जो सैकड़ों बरस पहले भूमध्यसागर क्षेत्र के जहाजियों की लिंगुआ फ्रैंका से निकला और आगे चलकर दुनिया की लिंगुआ फ़्रांका (सम्पर्क भाषा) इंग्लिश का बन गया। यह जानना दिलचस्प होगा कि टैरिफ़ का जन्म अरबी ज़बान में हुआ। यह आयातित वस्तुओं पर लगने वाला एक कर है, जिसका उद्देश्य सरकारी राजस्व बढ़ाना और घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाना होता है एक ऐसा शब्द; जो सभ्यताओं के बीच खुले संचार, पारदर्शिता और अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य को आसान बनाने की ज़रूरत से पैदा हुआ था, आज उसका इस्तेमाल राष्ट्रों के बीच आर्थिक दीवारें खड़ी करने और व्यापार को मुश्किल बनाने के लिए किया जाता है 'ज्ञान' और 'सूचना' (तारीफ़) के विचार से जन्मा यह शब्द आज आर्थिक 'अज्ञान' और संरक्षणवाद का हथियार बन गया है।

भूमध्यसागर के प्राचीन सौदागर

'टैरिफ़' शब्द की अरबी जड़ों को समझने से पहले अरबों के सौदागर चरित्र को पहचानना ज़रूरी है। उनका यह चरित्र इस्लाम के आगमन से हज़ारों साल पुराना है। प्राचीन काल से ही अरब प्रायद्वीप के निवासी, जैसे नबाती जन; यूरोप व एशिया में मसालों, लोबान और सुगन्धित पदार्थों के व्यापार पर एकाधिकार रखते थे। भूमध्यसागर अरब सौदागरों के लिए वैसा ही एक आँगन था जैसा किसी इतालवी, यूनानी या स्पेनी के लिए। उनकी नौकाएँ सदियों से इस सागर में तैर रही थीं। जहाँ विचारों और शब्दों का आदान-प्रदान पानी की लहरों उतना ही स्वाभाविक था जितना जिन्सों का लेन-देन। इसी पृष्ठभूमि ने एक ऐसी साझा शब्दावली को जन्म दिया जिसमें 'टैरिफ़' जैसे शब्दों के पनपने के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार की।

'ज्ञान' से 'कर' तक का सफ़र

'टैरिफ़' शब्द का स्रोत अरबी भाषा का शब्द 'तारीफ़' है यह शब्द सामी भाषा-परिवार के तीन अक्षरों वाले मूल अराफ़ा ऐन रा फ़ा से निकला है, जिसका केंद्रीय भाव 'जानना', 'पहचानना' या 'परिचित होना' है इस लिहाज़ से 'तारीफ़' का शाब्दिक अर्थ है- सूचना, अधिसूचना या परिभाषा । अब सवाल उठता है कि 'सूचना' जैसा अमूर्त विचार 'टैक्स' जैसे ठोस आर्थिक साधन में कैसे बदल गया? इसका जवाब मध्ययुगीन भूमध्यसागरीय व्यापार की व्यावहारिक ज़रूरतों में छिपा है तब बन्दरगाहों पर विभिन्न वस्तुओं पर मनमाने शुल्क चुकाने होते थे। इस हेतु शासन ने वस्तुओं पर शुल्कों की एक अधिकृत सूची बनाकर उसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना शुरू कर दिया चूँकि यह सूची टैक्स दर से सूचित कराने अवगत कराने का ज़रिया थी इसलिए धीरे-धीरे, प्रक्रिया का नाम उस दस्तावेज़ को भी मिल गया जो करों की दर बताता था। और इस तरह अरबी 'तारीफ़' यानी सूचना, का आशय 'शुल्क की सूची' हो गया

इतालवी मंडियों से यूरोप तक

अरबी शब्द 'तारीफ़' का यूरोप में प्रवेश भूमध्यसागर में व्यापार करने वाले इतालवी समुद्री गणराज्यों, जैसे वेनिस और जेनोआ, के ज़रिए हुआ । इन गणराज्यों के अरब जगत से गहरे कारोबारी रिश्ते थे। इतालवी भाषा ने इस अरबी शब्द को 'tariffa' (टैरिफ़ा) के रूप में अपनाया, जिसका अर्थ 'मूल्य-सूची' या 'मूल्याङ्कन' था यहाँ से यह शब्द फ्रांसीसी में 'tarif' (टैरिफ) बना और अंततः 1590 के दशक में 'tariff' के रूप में अंग्रेजी भाषा में पहुँचा । दिलचस्प बात यह है कि उस समय इसका मतलब सिर्फ़ "गणना में सहायक सूची" या रेडी रेकनर जैसा था। सतरहवीं सदी तक इसका अर्थ बदलकर "आयात-निर्यात पर लगने वाले शुल्कों की आधिकारिक सूची" हो गया। स्पष्ट रूप में शुल्क दर का आशय ग्रहण करने में इसे अभी करीब डेढ़ सदी का वक्त लगना बाकी था। 18वीं-19वीं शताब्दी में, विशेषकर अमेरिकी अंग्रेजी में यह आज के अर्थ में दाखिल हुआ।

तारीफ़ा बन्दरगाह का दिलचस्प मिथक

'टैरिफ़' शब्द की उत्पत्ति की एक कहानी स्पेन के दक्षिणी तट पर स्थित बंदरगाह 'तारीफ़ा' (Tarifa) से भी जुड़ती है। जो बताती है कि इस शहर का नाम 710 ईस्वी में आए बर्बर सेनापति तारिफ़ इब्न मलिक के नाम पर पड़ा था इस सिद्धान्त के अनुसार, इसी बन्दरगाह पर शुल्क वसूलने की प्रथा को शहर का नाम 'टैरिफ़ा' मिल गया, जो बाद में पूरे यूरोप में फैल गया यह कहानी सुनने में आकर्षक लगती है, लेकिन ज़्यादातर भाषाविद् इसे 'लोक मान्यताही समझते हैं और स्पष्ट रूप से अरबी शब्द 'तारीफ़' (सूचना) को ही इसका मूल बताते हैं । यह सम्भव है कि तारीफ़ा बंदरगाह का नाम और 'टैरिफ़' शब्द, दोनों की जड़ें एक ही अरबी मूल 'ع-ر-ف' में हों

क्या स्पेन के रास्ते आया 'टैरिफ़'?

इटली के व्यापारिक मार्ग के अलावा, स्पेन पर लगभग सात शताब्दियों तक रहे इस्लामी शासन (अल-अंदलुस) की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह भी एक प्रबल संभावना है अल-अंदलुस ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति के आदान-प्रदान का एक विशाल केंद्र था, जहाँ अरबी, लैटिन और स्थानीय भाषाएँ एक-दूसरे के गहरे सम्पर्क में थीं। इस दौरान प्रशासन, कृषि और व्यापार से जुड़े सैकड़ों अरबी शब्द स्पेनिश और पुर्तगाली भाषाओं का हिस्सा बने। चूँकि अधिकृत शुल्क-सूचियों की अवधारणा इस्लामी प्रशासनिक व्यवस्था का एक हिस्सा थी, यह बहुत सम्भव है कि 'तारीफ़' शब्द और इससे जुड़ी प्रथा इबेरियन प्रायद्वीप (स्पेन और पुर्तगाल) में भी गहराई से प्रचलित हुई हो और वहाँ से यूरोप के अन्य हिस्सों में फैली हो।

शब्दों का अलिखित सफ़र

किसी भाषा में एक शब्द का पहला लिखित प्रमाण यह बताता है कि वह शब्द उस समय तक उस भाषा में स्थापित हो चुका था, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि उसका प्रयोग तभी शुरू हुआ हो। अंग्रेज़ी में 'टैरिफ़' का पहला दस्तावेजी प्रमाण 1591 का मिलता है । लेकिन यह निष्कर्ष निकालना ग़लत होगा कि भूमध्यसागरीय क्षेत्र में यह शब्द या अवधारणा इससे पहले प्रचलित नहीं थी। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, अरबों का भूमध्यसागर से रिश्ता बहुत पुराना और गहरा है। सदियों के व्यापारिक लेन-देन के दौरान निश्चित रूप से एक साझा शब्दावली विकसित हुई होगी, जिसे 'लिंगुआ फ़्रैंका' कहा जाता था यह व्यापारियों और नाविकों द्वारा बोली जाने वाली एक मिश्रित भाषा थी 'तारीफ़ा' जैसे शब्द इस अनौपचारिक व्यापारिक भाषा का हिस्सा रहे होंगे और लिखित दस्तावेज़ों में दर्ज होने से बहुत पहले से ही बोलचाल में प्रचलित रहे अरबों और यूरोपीयों के सम्बन्ध ईसा से भी पूर्व से चले आ रहे हैं।

'मारफ़त' और 'अराफ़ात' का रिश्ता

दिलचस्प यह भी है कि 'टैरिफ़' शब्द का मूल 'ع-ر-ف' यानी अराफ़ा उसी शब्द-शृंखला से जुड़ा है जिससे अरबी की साहित्यिक और दार्शनिक शब्दावली के लोकप्रिय शब्द भी निकले जैसे 'मारफ़त' 'अराफ़ात'यह मूल 'ज्ञान' और 'पहचान' की अवधारणा से सम्बन्धित शब्दशृङ्खला का हिस्सा है कुछ अन्य शब्द हैं जैसे मारूफ यानी "जो ज्ञात है" तआरुफ़ यानी "एक-दूसरे को जानना" या आपसी परिचय आरिफ़ का अर्थ है "जानने वाला" या ज्ञाता अराफ़ात के बारे में विस्तार से वक़्फ़ शृङ्खला में बताया जा चुका है।  यह मक्का के पास स्थित मैदान का नाम है। इसी तरह तारीफ़ इस शृङ्खला का सबसे प्रसिद्ध शब्द है जो हिन्दी, उर्दू में 'प्रशंसा' के लिए इस्तेमाल होता आया है। इसका मूल अर्थ 'पहचान कराना' था, जिसके लिए अब हिन्दी उर्दू में तआर्रुफ प्रचलित है। यही पहचान, करों की दर से अवगत कराने वाले तारीफ़ा यानी टैरिफ़ से जुड़ गई।

टैरिफ की विकास यात्रा क्या कहती है?

यही कि वैश्वीकरण कोई नई घटना नहीं है । सदियों से संस्कृतियाँ एक-दूसरे से व्यापार करती रही हैं और विचार एवं शब्दों का आदान-प्रदान करती रही हैं। जब आज के राष्ट्र अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए 'टैरिफ़' लगाते हैं, तो वे जिस शब्द का उपयोग करते हैं, वह स्वयं उनके साझा और परस्पर जुड़े अतीत की सबसे बड़ी गवाही देता है कैसे एक विचार अपनी उत्पत्ति के ठीक विपरीत अर्थ धारण कर सकता है, और कैसे भाषाएँ इतिहास की सबसे जटिल परतों को भी अपने भीतर सहेजकर रखती है।

....और चलते चलते
आमतौर पर टैरिफ और कस्टम को लेकर पिछले कुछ महिनों से आम व्यक्ति भ्रमित है। हमारे यहाँ विदेशी वस्तुओं पर लगने वाले कर के लिए सामान्यतः कस्टम ड्यूटी शब्द ही प्रचलित है। वस्तुतः
'कस्टम' वह सरकारी विभाग या प्रशासनिक प्रणाली है, जो 'टैरिफ़' नामक कर-सूची के अनुसार शुल्कों की वसूली करता है। हालाँकि, जब 'कस्टम ड्यूटी' (सीमा शुल्क) कहा जाता है, तो इसका आशय उसी 'टैरिफ़' द्वारा निर्धारित कर से ही होता है। इस प्रकार, 'कस्टम' (विभाग) और 'टैरिफ़' (कर) में स्पष्ट अंतर है, लेकिन 'कस्टम ड्यूटी' (कर) और 'टैरिफ़' (
कर) व्यावहारिक रूप से एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।


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